Home » Uttarakhand » दीपावली पर्व महोत्सव उत्तराखंड

दीपावली पर्व महोत्सव उत्तराखंड

by Surjeet Singh
दीपावली पर्व महोत्सव उत्तराखंड

हिन्दू धर्म अपने ऐतिहासिक महत्व के साथ साथ पारम्परिक लोकपर्वों के लिए भी पूरी  दुनिया भर में मशहूर है।  बात चाहे प्रकृति के नव रूप धारण की हो या देवी देवताओं के आह्वान की। यहाँ पर हर पर्व को जीवंत रखने की परम्परा सदियों से है। उन्ही पवित्र त्यौहारों में से एक है दीपावली महोत्सव जो की पुरे भारतवर्ष के साथ साथ उत्तराखंड राज्य में भी बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है।  उत्तराखंड क्लब के आज के लेख के माध्यम से हम आप लोंगों के साथ दीपावली पर्व के बारें में जानकारी एवं दीपावली पर्व महोत्सव उत्तराखंड के बारें में जानकारी साझा करने वाले है। आशा करते है की आपको आज का लेख जरुरु पसंद आएगा।

दीपावली पर्व क्या होता है

दीपावली हिन्दू धर्म का प्रमुख त्यौहार है। ख़ुशी और रौशनी का यह त्यौहार असत्य पर सत्य की विजय और आध्यात्मिक रूप से यह ‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’ को दर्शाता है | पोराणिक कथाओं में दीपावली का विशेष महत्व माना जाता है।  दीपावली को ही दीपावली के नाम से जाना जाता है।  दीवाली शब्दों के मेल से बना है दीप’अर्थात ‘दिया’ और ‘आवली’ अर्थात ‘श्रृंखला’से है। पोराणिक कहानियों कथाओं के अनुसार दीपावली का हर धर्म में अलग अलग महत्व है।  लेकिन हिन्दू मान्यता के अनुसार दीवाली का सम्बन्ध ‘लक्ष्मीजी’ और ‘विष्णु’ भगवान के अवतार श्री ‘राम’ से जुड़ा हुआ है| हर साल मनाये जाने वाला यह पर्व लोगों के खुशियों से सम्बन्ध रखता है।  बताना चाहेंगे  की हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी दीवाली मामने का प्रावधान है।

दिवाली कब है 2022

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी लोगों द्वारा दिवाली पर्व का बड़ी बेसब्री से इन्तजार किया जा रहा है।  क्यों की यह पर्व प्रमुख होने के साथ साथ पुरे भारत वर्ष में हर्ष के साथ मनाया जाता है।  दीवाली हर वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। पोराणिक मान्यता के अनुसार आज के दिन आज के भगवान श्री राम जी माता सीता के साथ चौदह वर्ष अपरान्त अपने पैतृक गावों अयोध्या लोटे थे।  उनकी लौटने की ख़ुशी से नगरवासी  फूलें न समायें और अयोध्या नगरी को  घी के दीयों से सजाया गया था।  इसलिए दीपावली दीपोत्सव  पर्व के रूप में भी जानी जाती है।  और इस साल यानि की 2022  में दीवाली 24 अक्टूबर, अमावस्या के दिन मनाई जाएगी।   

दीपावली पर्व क्यों मनाया जाता है

दीपावली पर्व क्यों मनाया जाता है इसका वर्णन हिंदू दर्शन, क्षेत्रीय मिथकों, और  किंवदंतियों के मान्यता के  आधार पर पता चलता है की  दीपावली प्रमुख ग्रन्थ रामायण के अनुसार जब भगवान श्री राम ,माता सीता के साथ चौदह वर्ष अपरान्त वनवास से अयोध्या लोटे थे तो उनके प्रिय राजा के आने की ख़ुशी में अयोध्यवासियों का ह्रदय ख़ुशी से प्रफुल्लित हो उठा और उनके आगमन पर नगरवासियों ने घी के दीये जलाएं।

पूरी आयोध्या नगरी को फूलों से सजाया गया। और दीवाली मनाई गई। इसलिए तब से दीवाली मामने का रिवाज चलता आ रहा है।  इसलिए हर वर्ष हिन्दू धर्म के लोगों द्वार कार्तिक अमावस्य के दिन दीवाली मनाई जाती है।  लेकिन आपको जानकार हैरानी होगी की राम की नगरी अयोध्या में केवल दो वर्ष ही दीपावली मनाई गई।   दीवाली अंधकार पर प्रकाश की जीत है।  माता सीता के अपहरण करने के दौरान ही भगवान श्री राम को रावण का वध करना पड़ा। इसलिए इसे असत्य पर सत्य की विजय के प्रतिक के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दू धर्म के साथ साथ बौद्ध एवं शिख धर्म में भी दीवाली मनाई जाती है। लेकिन वहाँ पर इसके मनाए का कारण और उद्देश्य काफी अलग है।

दीवाली का महत्व

दीपावली पर्व केवल  पटाखों  के शोर तक ही सिमित नहीं है। आज के दिन का महत्व सभी के जीवन में बड़ा ही खास होता है।  जहाँ दीवाली अंधकार पर प्रकाश की जीत है। वही यह हम सबको यह शिक्षा देती है की जीत हमेशा सत्य की ही होती है। बुरे कर्मो का अंजाम रावण की कहानियों के माध्यम से भी  पता चलता है।  इसलिए सभी रावण ना बन कर भगवान श्री राम की शिक्षाओं की ओर प्रेरित होते है। आज के दिन लोगों द्वारा नयें व्यापार शुरू किये जाते है।  वही चारों तरफ घर, बाजारों में एक नई चहल पहल के साथ रौनक देखने को मिल जाती है।  सभी लोगों द्वारा अपने घर की साफ़ सफाई करके नयें नयें समानों से सजाया जाता है।  निष्कर्षतः यह हर हिन्दू धर्म वालों के लिए बड़ी ही ख़ुशी का दिन होता है।

दीपावली पर्व महोत्सव उत्तराखंड

हर त्यौहार की भांति दीवाली भी उत्तराखंड में बड़े ही हर्ष ओर उल्लास के साथ मनाई जताई है।  दीवाली के दो दिन पहले से ही धनतेरस के दिन से ही पहाड़ों में इसकी रौनक देखने को मिल जाती है।  आसोज का महीना होता है।  सभी लोग खेती बाड़ी के काम काज में व्यस्त होते है लेकिन इसके उत्सव में कोई कमी देखने को नहीं मिलती है। खेत खलिहान से लेकर बाजार के कोने कोने में इसकी ख़ुशी देखने को मिल जाती है।  खेती बाड़ी में जहाँ नया अनाज घर में प्रवेश करता है वही बाजारों में दुकाने अपना नया रूप धारण कर लेती है। चारों तरफ एक नई ख़ुशी का माहौल झलकता दिखाई देता है। कुछ दिन पहले से ही घरों की साफ़ सफाई करके लाल मिट्टी के सहायता से लिपाई पुताई की जाती है।  इसके अलावा रंग रंगाई का कार्य भी इस शुभावसर पर किया जाता है। इस अवसर पर पालतू जानवरों का भी विशेष ध्यान रखा जाता है उनके लिए झंगोरे और अन्य अनाजों के माध्यम से पारम्परिक तौर से पिंडा ( जानवरों को दिया जाने वाला पकवान ) तैयार किया जाता है।

दीवाली के दिन की शुरुवात सभी लोगों द्वारा सुबह स्नान करने से किया जाता है। सुबह से ही सभी लोग तैयारियों में जुट जाते है। किसी विशेष व्यक्ति के द्वारा देव तुल्य स्थानों  की  गंगा जल एवं गाय के गोबर से लिपाई पुताई की जाती है। पर्व के ख़ुशी की झलक छोटे बच्चों की खिल खिलाती हँसी से महसूस की जा सकती है। आज के दिन पारम्परिक पकवानों के माध्यम से दिन का भोजन किया जाता है।

शाम होते ही गांव के सभी घर दीपों की रौशनी से  जगमगाते हुए दीखते है।  परिवार के सभी सदस्यों से द्वारा माता लक्ष्मी के साथ गणेश और भगवान श्री राम के साथ माता सीता की पूजा अर्चना की जाती है। आज के दिन माता लक्ष्मी पूजा का बड़ा ही महत्व माना जाता है। गांव के सभी परिवारों द्वारा मिठाई बांट कर एक दूसरे को दिवाली की शुभकामनाएं दी जाती है।

छोटे बच्चों द्वारा दिवाली कुछ तरह से मनाई जाती है।  एक घर से दूसरे घर में जा कर इनके द्वारा दिवाली मानने का  खास ढंग देखने को मिलता है।  फुलझड़ी पटाखे भले ही कम जलाये जाते है लेकिन प्यार और आपसी सम्बन्ध इस त्यौहार की मुख्य देन है | दीपावली पर्व महोत्सव उत्तराखंड  में  कुछ इस तरह से मनाया जाता है।

बग्वाल में खेला जाता है भेल्लो

दिवाली को उत्तराखंड में बग्वाल के नाम से भी जाना जाता है।  आज के दिन एक विशेष प्रकार से खेले जाने वाला गांठ भेल्लो तैयार किया जाता है।  जो की चीड़ की लीसेदार लकड़ी के माध्यम से बनाई जाती है।  उत्तराखंड दिवाली में इसका बड़ा ही महत्व माना जाता  है।  इसका उपयोग दिवाली उत्सव के दौरान बड़े लोगों द्वारा उत्सव को खास बनाने के लिए किया जाता है। भेल्लो पर एक रस्सी बांध दी जाती है जिसके सहायता से उसे खेलने वाला ब्यक्ति अपने सर और पैर के नीचे से बड़े ही कुशल तरीके से घूमता है।  कुछ साल पहले यह परम्परा सभी घरों में देखने को मिलती थी लेकिन आज के समय में यह परम्परा धीरे धीरे अपनी समाप्ति की ओर दिख रही है।  गांव के कुछ ही घरों में यह भेल्लो खेलने की परम्परा दिखाई देती है।

You may also like

Leave a Comment