राज्य की संस्कृति वहाँ के लोगों और उनके रहन सहन से ज्ञात होती है। लोगों के रहन सहन का हिस्सा स्थनीय खानपान एवं उनके पारम्परिक पोशाक , लोकपर्व, मेलें, महोत्सव, आदि है। उत्तरायणी मेला उत्तराखंड के प्रमुख मेलों में से एक है। जो की उत्तराखंड की संस्कृति, कला, और लोगों के आपसी प्रेम को एक सूत्र में संजोता है। आज के इस लेख के माध्यम से हम उत्तरायणी मेला के बारें में जानकारी साझा करने वाले है। मेला कब और कैसे मनाया जाता है जानने के लिए इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें।
उत्तरायणी मेला के बारें में
प्रसिद्ध मेला उत्तरायणी उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर जिलें सरयू गोमती व सुष्प्त भागीरथी नदियों के संगम पर आयोजित होता है। आज के दिन यहाँ पर हजारों लोगों का जमवाड़ा देखने को मिलता है। आज के दिन गंगा स्नान का बड़ा महत्व माना जाता है। बताना चाहेंगे की उत्तरायणी उन मेलों में से एक है जहाँ पर उत्तराखंड संस्कृति ,कला के साथ लोगों के कौशल से निर्मित विभिन्न उत्पादों को एक मंच प्रदान होता है। इसके साथ ही मेलें में नाच-गाना , सांस्कृतिक कार्यकर्म और मनोरंजन के बहुत से साधन मेलें में देखने को मिल जाते है । न केवल बाजार क्षेत्र के लोग मेलें का आनंद लेने आते है बल्कि पहाड़ी दूरवर्ती गांव के लोगों द्वारा उत्तरायणी मेलें में जमकर हिस्सा लिया जाता है।
वैसे तो यह मेला एक हफ्ते तक चलता है लेकिन नदी के बायें ओर बसे लोग पहले दिन एवं दाएं ओर बसे लोग दूसरे दिन मानते है। मेले शुरू होते ही एक बड़े से जमवाड़ा में हुड़की और लोकगीतों की धून नृत्य के साथ महफ़िल जमने लगती है। दानपुर और नाकुरी पट्टी के लोगों द्वारा खास तरह से चांचरी नृत्य किया जाता है।
उत्तरायणी मेला कब मनाया जाता है?
उत्तरायणी मेला उत्तराखंड का प्रसिद्ध मेले में से एक है इसलिए इस मेले के शुरू होने से पहले से लोग इस मेले का इंतजार करते है और हर नयें वर्ष में इसके नयें जोश और धूम धाम के साथ होने की आस रहती है। उत्तरायणी मेला की आयोजन तिथि समिति द्वारा निर्धारित की जाती है। बताना चाहेंगे की उत्तरायणी मेला हर वर्ष 14 जनवरी को आयोजित किया जाता है।
मेलें के माध्यम से स्थानीय कलाकारों को पारंपरिक विधाओं को उजागर एवं संजोने का मौका मिलता है। इस दिन लोगों पारम्परिक पोशाक धारण करके मेलें की शोभा बढ़ाते है। सांस्कृतिक कार्यकर्म आयोजित किये जाते है जिसकी तैयारी स्थानिया लोंगो द्वारा मेलें के कुछ दिन पहले से ही शुरू की जाती है।
उत्तरायणी मेले में कौन सा नृत्य होता है?
मेलें के दौरान स्थानिया लोंगो द्वारा मेलों को महत्पूर्ण एवं भव्य बनाने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। जिसमें यहाँ के लोग अपनी संस्कृति को संजोते हुए दिखाई देते है। दरअसल मेलें में लोकनृत्य एवं गायन करने का रिवाज शुरू से ही बना हुवा है। इसलिए मेलें खास तरह के नृत्य एवं लोकगीत गायें जाते है।
पारम्परिक पोशाक में नजर आती यहाँ की महिलाएं उत्तराखंड सांस्कृतिक की अनोखी छवि प्रदर्शित करती है। मेलें में महिलाओं द्वारा न केवल हिस्सा लिया जाता है बल्कि मेलें की शोभा बढ़ाने के लिए नृत्य भी करते है। जिसमें उनका साथ देते है पुरुष वर्ग जो की स्थानिया पोशाक में नजर आते हुए नृत्य में अपना योगदान देते है। आमतौर पर उत्तरायणी मेले में छोलिया, झोरा, चंचरी और कई तरह के नृत्य किये जाते है।
उत्तरायणी मेले का इतिहास
जिस तरह से उत्तरायणी मेला उत्तराखंड संस्कृति को उजागर करता है ठीक इसी तरह इसके इतिहास और महत्व को भी माना जाता है। ऐतिहासिक कहानियों के आधार पर पता चलता है की चन्द वंशीय राजाओं के समय से उत्तरायणी मेले की नींव पड़ी थी। इस समय समस्त भूमि के उपज का एक बड़ा भाग मंदिर में चढ़वा के रूप में रखा जाता था। चन्द वंस के राजाओं ने बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किया। तब से बागेश्वर क्षेत्र में एक परम्परा चली आ रही की यहाँ कन्या दान नहीं किया जाता है। मेला दो दिन चलता है जिसे नदी के किनारे बसे लोग एक एक दिन मानते है। मेलें में मकर स्नान्न का बड़ा महत्व माना जाता है।